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वो अधूरी मुलाक़ात।
















हाँ, वो मुलाक़ात
अधूरी ही तो थी,
तुमने देखा
हमने देखा
फिर भी नजरें
अनजान बनी रहीं।

मैं मंज़िल को
देखता रहा,
तुम्हे रास्ते की 
परवाह थी।
जमाने की फिक्र
करके तुम
ना जाने क्यों
बेताब थी।

मेरी ज़िद थी
दीये को जलाने की,
तुम आंधियों को
हवा दे रही थी।
मेरी ज़िद थी
महफ़िल में
मुस्कुराने की,
तुम तन्हाई में
रहकर खुद को
सजा दे रही थी।

हाँ, वो मुलाक़ात
अधूरी ही तो थी,
जब बरसते बादल
में भी तुमने
प्यार को पनपने
ना दिया।
और मेरा दिल
भींगकर भी
प्यासा रह गया।

©नीतिश तिवारी।

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4 Comments

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-02-2017) को "कूटनीति की बात" (चर्चा अंक-2883) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. waah behad sundar marmik prem abhivyakti, komal prem ki saundhi mahak

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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