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Gunahon ke devta book review by Harshit Guptaa.

Gunahon ke devta dharmveer bharti




 








समय बदला.. मनुष्य बदला.. परिधान बदला.. परिवेश बदला.. बोलचाल बदली.. व्यवहार बदला.. पर नहीं बदला तो वो है 'प्रेम' जो तब भी शाश्वत था और अनन्त काल तक रहेगा। समय चक्र के हर दौर में इसकी अवधारणा व परिभाषा ने जरूर हम सभी की सोच व नज़रिये को एक दिशा दी पर अपनी आत्मा को इसने कहीं ना कहीं बचा कर रखा। किसी ग्रंथ में..किसी के दिल में.. किसी स्मारक में.. तो किसी उपन्यास में। 


बाज़ारवाद व आधुनिकीकरण के इस दौर में हमारे बदलते विचारों को अगर किसी ने ठहराव दिया है तो वो प्रेम ही है। जो ना जाने कब धीमे पदचिन्हों से हमारे जीवन में आ जाता है और हमें बदल कर रख देता है। कभी कभी हम अपने अन्जानेपन में इसे अपनी ज़िंदगी में मानने से मना भी कर देते हैं पर जब हमें इसका अहसास होता है तो या तो हमारे पास बहुत कम समय बचा होता है या फ़िर बहुत देर हो चुकी है। जो समय रहते इस सत्य को जान लेते हैं उन्हें मुक्ति मिल जाती है। और जो नहीं समझ पाते वह आजीवन मोक्ष की चाह में भटकते रहते हैं। 


कुछ ऐसी ही कश्मकश व प्रेम की शाश्वत जमीं पर बुनी हुई रचना है ' गुनाहों का देवता'। अल्हण प्रेम.. आंसुओं के सैलाब.. विरह की वेदना.. व भावनाओं के संगम से सराबोर इस उपन्यास में एक भी पंक्ति ऐसी नहीं जिसने आपको अपने प्रेम से ना सींचा हो। 


1 - कहानी 


इस उपन्यास की कहानी आज के समय - अनुसार आपको नयी नहीं लगेगी पर दो दशक पहले लिखे इस उपन्यास एवं वर्तमान की भी परिस्थितियों में खास परिवर्तन नहीं हुआ है। कहीं कहीं किरदार जरूर कल्पनाओं में कुछ अधिक विचरण करते लगते हैं। पर तब के दशक के हिसाब से यह रचना खुद को जस्टीफॉय करती है। तब प्रेम व रिश्तों में ज्यादा प्रैक्टिकैलिटी नहीं हुआ करती थी। प्रेम का अहसास लोगों के लिए देवत्व के अहसास की तरह ही हुआ करता था। इस कहानी का हर किरदार हम सभी को अपने जीवन में आसानी से  मिल जाएगा। और यही सबसे खूबसूरत बात है इस रचना की। 


2 - पटकथा 


भारती जी की लाज़वाब व कसी हुई पटकथा का जादू ही है जो सभी पाठकों के सर चढ़कर बोला है। एक एक पंक्तिबद्ध लाईन्स.. हर दूसरी कड़ी से उसकी उपयोगिता के आधार पर जुड़ी हुई हैं। कहीं भी किसी कड़ी की अति का अहसास नहीं हुआ। उपन्यास आपको खुद के साथ अन्त तक बांधने में सफ़ल है। 


3 - शब्द कोश व संरचना 


एक साधारण सी कहानी में जान कैसे डाली जाती है। वो भारती जी इस उपन्यास में अपने मोतियों जैसे चुने शब्दों से जाहिर कर गये। क्लासिक साहित्य व नयी वाली हिंदी को यही बात एक दूसरे से अलग करती है। साहित्य में आपको एक ठहराव देखने को मिलता है। कहानी के अनुसार शब्द अपने आप रास्ता तय करते हैं.. व अपनी उपयोगिता दर्शाते हैं। इस उपन्यास में आपको दर्शन भी पढ़ने को मिलेगा तो उर्दू की शायरी भी। 


4 - किरदार 


उपन्यास के सभी किरदारों को अपने अपने हिस्से की कहानी कहने के लिए पूरी छूट मिली है। कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यह किरदार उपन्यास की जरूरत नहीं। जिसे जितना भी वक्त मिला उसने अपनी पटकथा के साथ पूरा न्याय किया है। 


पहला किरदार :- चन्दर 


मुझे नहीं मालूम की भारती जी ने इस उपन्यास का नाम 'गुनाहों का देवता' क्यों रखा पर मेरी नज़रों में समाज व परिवार को साथ लेकर चलने वाला तथा उन परम्पराओं एवं रीति-रिवाज की वजह से अपने प्रेम को खो देने का दुःख लिए हर शख्स कमोबेश चन्दर जैसा ही होता है। डॉ शुक्ला के प्रति उसका सम्मान व आदरभाव.. सुधा के प्रति हक़.. बिनती के लिए दया व प्रेम.. पम्मी के समक्ष उसका टूटना यह हर पुरुष के जीवन का एक अभिन्न अंग है। जिससे कभी न कभी हम अपने संपूर्ण जीवन में दो चार होते ही हैं। और अगर चंदर गुनाहों का देवता है तो फ़िर मुझे तो कहीं डूब मरना चाहिए। 


दूसरा किरदार :- सुधा 


सुधा का किरदार मुझे बिल्कुल राधा सा प्रतीत हुआ। जिसे कृष्ण के समक्ष किसी और के साथ फ़ेरे लेने पड़े। उसका दुःख.. उसका प्रेम.. उसका अल्हड़पन सब बेहिसाब है इस कृति में। अपने जीवन में हर व्यक्ति शायद सुधा की चाह रखता है। पर जिस रूप में उसने चन्दर को प्रेम किया.. वर्तमान में यह बिल्कुल असंभव है और शिष्टाचार के अनुसार यह हमेशा गलत था और गलत ही रहेगा। 


तीसरा किरदार - बिनती 


इस संपूर्ण किताब में अगर मुझे सबसे सशक्त व महत्वपूर्ण किरदार लगा तो वो था 'बिनती' का। जिसने अपने भोलेपन व सेवाभाव से कहानी में एकछत्र राज किया। सुधा व चन्दर का जादूई तिलिस्म भी बिनती के त्याग व मुहब्बत के आगे फ़ीके पड़ गये। रह रहकर कहानी के अंत तक दिल ने सिर्फ यही चाहा कि बिनती के प्यार के साथ न्याय जरूर होना चाहिए। 


चौथा किरदार  :- पम्मी उर्फ प्रमीला डिक्रूज़ 


चन्दर का सहारा व इस उपन्यास की श्रीकृष्ण। महाभारत में जो भूमिका कान्हां की रही.. वही भूमिका इस उपन्यास में पम्मी ने निभाई। पम्मी ने चन्दर की ज़िंदगी की कमान अपने हांथों में तब ली.. जब उसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी.. और एक कुशल सारथी की तरह उसने चन्दर को सत्य से परिचित भी कराया व उसे सही राह पर जाने के लिए प्रेरित भी किया। कृष्ण की तरह महाभारत के सभी लांछन व श्राप को अपने ऊपर लेते हुए भी पम्मी ने उपन्यास में अपनी भूमिका को लाज़वाब कर दिया। 


पांचवा किरदार  :- बर्टी 


इस उपन्यास का वह किरदार जिसका रोल भले ही सहायक या कैमियो का था पर अपने बेहतरीन जीवनदर्शन व सनकपन से उसने उसमें प्राण फूक़ दिये। 


छठा किरदार :- डॉ शुक्ला 


कहानी का सबसे महत्वपूर्ण किरदार पर ज्यादा स्पेस नहीं मिला। पिता की सभी जिम्मेदारियां, प्रेम व सामाजिक दायित्व को बेहद ही अच्छे ढंग से निभाया उन्होने। खला तो सिर्फ यह कि ' बगल में छोरा और शहर में ढिंढोरा' कहावत की तर्ज पर किरदार को निभाया। और शायद यही कहानी की मांग भी थी। वर्ना उपन्यास का नीरस होना स्वाभाविक था। 


बाकी सभी महत्वपूर्ण किरदार चाहे वो बुआ जी हों.. महाराजिन हो.. गेंसू हो या बिसरिया सभी अपनी अपनी छाप छोड़ने में सफ़ल रहे हैं। 


कुल मिलाकर यह उपन्यास पठनीय है आज के समय के हिसाब से यह रचना आपको घिसी-पिटी व बचकानी सी प्रतीत हो सकती है पर साहित्य से प्रेम करने वाला हर व्यक्ति इस उपन्यास की कद्र जरूर करेगा.. एवं प्रेम तथा सद्भावना से इस उपन्यास को पढ़ने वाले हर पाठक की आंखें भावनात्मकता से छलक उठेंगी।


इस पुस्तक समीक्षा को लिखा है युवा लेखक हर्षित गुप्ता ने जिनकी पहली किताब हमनफ़स पहले से ही धूम मचा रही है। आप यहाँ से खरीद सकते हैं।




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