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तुम अपने प्रेम से
मुझे मुक्त होने को
कहते हो?
तो कह दो उस
आसमाँ से कि
अपनी बारिश की
बूँदों को धरती से
वापस ले जाए।
तो कह दो समंदर
से मिलकर पूरी
हुई नदी से कि
वो अपनी धार को
समंदर से खींचकर
फिर से आधी हो जाए।
तुम अपने प्रेम से
मुझे मुक्त होने को
कहते हो?
तो कह दो राजा
के महल में जल
रहे दीये की लौ
को कि वो जलना
बंद कर दे
जिससे की ठंडी
रात में तालाब में
इनाम की चाह में
पड़ा ब्राम्हण ठिठुर
कर मर जाए।
अगर ये सब कहने की
तुम्हारी चेष्ठा नहीं है तो
बस एक बात सुन लो
दो आत्माओं के मिलन
से प्रेम परिपूर्ण होता है
एक दूसरे से मुक्त होने
से आत्माएँ भटकती
रहती हैं
और इस जन्म में
मैं तुम पर भूत का
इल्ज़ाम नहीं आने
देना चाहता।
©नीतिश तिवारी।
16 Comments
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 17 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteरचना शामिल करने के लिए धन्यवाद।
Deleteबहुत सुन्दर और दिल की आवाज।
ReplyDeleteधन्यवाद सर।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (04 मई 2020) को 'गरमी में जीना हुआ मुहाल' (चर्चा अंक 3705) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद।
Deleteसंशोधन-
Deleteआमंत्रण की सूचना में पिछले सोमवार की तारीख़ उल्लेखित है। कृपया ध्यान रहे यह सूचना आज यानी 18 मई 2020 के लिए है।
असुविधा के लिए खेद है।
-रवीन्द्र सिंह यादव
सुन्दर रचना
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपका शुक्रिया।
Deleteसुंदर सार्थक सारगर्भित सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteशब्दों से परे गढ़ी प्रेम की परिभाषा का बेहतरीन चित्रण.
ReplyDeleteसादर
बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteआपका धन्यवाद।
Deleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।