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बचपन वाला दौर और अंतर्द्वंद्व।


हिंदी कविता







दौर तो बचपन वाला ही चल रहा है
बस हम जवान हुए बैठे हैं ।
घर के सुनहरे पलों को छोड़ कर
बाहरी किराएदार हुए बैठे हैं ।
कुछ महीने ज़्यादा पड़ने लगें 
जहाँ हम वर्षों गुज़ार बैठे हैं । 
किसी से मिलने की तलाश में 
हम अपनों को दरकिनार कर बैठे हैं । 
बेचैनी , कौतूहल , अंतर्द्वंद्व जो कल भी थी 
उसे अभी तक अंदर जगाये बैठे हैं ।
पांच इंच में दुनिया को समेटने की तुच्छ कोशिश कर 
झूठे व्यपार में अपने को लगाए बैठे हैं ।

©शांडिल्य मनीष तिवारी।

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16 Comments

  1. सादर नमस्कार,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (15-05-2020) को
    "ढाई आखर में छिपा, दुनियाभर का सार" (चर्चा अंक-3702)
    पर भी होगी। आप भी
    सादर आमंत्रित है ।
    …...
    "मीना भारद्वाज"

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    Replies
    1. रचना शामिल करने के लिए आपका धन्यवाद।

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  2. बहुत सुंदर 👌👌

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  3. बहुत खूब ,सुंदर सृजन...

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  4. सच कहा आपने .....

    झूठे व्यपार में अपने को लगाए बैठे हैं

    ये क्या है एक अंतर्द्वंद ही तो है और क्या है

    👌👌💐💐💐

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  5. बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर.

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