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रेत पर महल बनाए,
कागज़ के नाव चलाए,
बचपन की बाते थीं जनाब,
काश वो दिन फिर लौट आए।
Ret par mahal banaye,
Kagaz ke naam chalaye,
Bachpan ki wo baaten thi janab,
Kaash wo din fir laut aaye.
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©नीतिश तिवारी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-05-2019) को "लुटा हुआ ये शहर है" (चर्चा अंक- 3334) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत धन्यवाद सर।
Deleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद सर।
Deleteकाश, लौट आते वो दिन, सुनहरे परों वाले वो पलक्षिण ....
ReplyDeleteदिन तो नहीं लौटेंगे लेकिन हम उन दिनों को याद तो कर ही सकते हैं।
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