याद आती है मुझे बचपन की वो होली,
लोगों से भरी हुई वो गली,
और सबके हाथों में गुलाल की थैली।
याद आती है मुझे बचपन की वो होली,
वो पिचकारी में रंग का भरना,
भागते भागते किसी के ऊपर गिरना।
दोस्तों को चुपके से रंग लगाना,
वो मुझे देखकर भाभी का शरमाना,
शरमाती हुई भाभी को रंग लगाना,
और बदले में जी भर के उनसे रंग लगवाना।
याद आती है मुझे बचपन की वो होली,
वो मीठी सी भोजपुरी बोली,
और साथ में हंसी की ठिठोली।
©नीतिश तिवारी।
2 Comments
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-03-2016) को "शिकवे-गिले मिटायें होली में" (चर्चा अंक - 2289) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
रंगों के महापर्व होली की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर रचना...रंगोत्सव की शुभकामनयें...
ReplyDeleteपोस्ट कैसी लगी कमेंट करके जरूर बताएँ और शेयर करें।