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मोहब्बत में खता।



















कुछ तो खता कर दी मैंने मोहब्बत निभाने में,
जो तुमने देर ना की पल भर में मुझे भुलाने में।

खुदा की जगह तेरा सज़दा किया मैंने सुबह-ओ-शाम,

पर तेरी दिलचस्पी नहीं थी इस रिवाज़ को निभाने में।

ज़िस्म की मोहब्बत रूह तक पहुँचने से पहले ही,

छोड़कर चली गयी तू किसी और के नज़राने में।

और ना कभी मिटने वाले बेवफ़ाई का गम देकर,

मुझे मज़बूर कर दिया बैठकर पीने को मयखाने में।

जब पूछेंगे लोग मेरी मोहब्बत की दास्तान तो,

कैसे मुँह दिखाऊंगा मैं अपनी अब इस ज़माने में।

©नीतिश तिवारी।

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5 Comments

  1. बहुत बहुत धन्यवाद।

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (08.01.2016) को " क्या हो जीने का लक्ष्य" (चर्चा -2215) पर लिंक की गयी है कृपया पधारे। वहाँ आपका स्वागत है, सादर।

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    1. राजेंद्र जी आपका आभार

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  3. सुन्दर रचना ।

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  4. सुन्दर रचना ।

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