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वो शाम उलझी हुई थी।





वो शाम उलझी हुई थी
ये रात बिखरी पड़ी है
मैं सुबह को समेटूँगा कैसे
सूरज रूका पड़ा है

उलाहने देता वो समंदर
कभी ना रुकती वो नदी
बस मैं ही ठहरा हूँ
हिमालय का साथी बनके

©नीतिश तिवारी।




 

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6 Comments

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-8-22} को साथ नहीं है कुछ भी जाना" (चर्चा अंक 4535) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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    Replies
    1. मेरी रचना शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

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  2. वाह..बहुत खूब। बधाई आपको।

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  3. बहुत ही सुन्दर रचना

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