बात सिर्फ खूबसूरती की होती तो दिल बेकाबू ना होता,
हम तो लुट गए थे उसके सादगी के अंदाज़ से,
बिखरी जुल्फों में महकते खुशबुओं की जो बात थी,
हम तो होश खो बैठे थे करके दीदार उस महताब के।
गम की चादर ओढ़कर ज़ख्मों को सुलाया है मैंने,
अपने आंसुओं से जलते ख्वाबों को बुझाया है मैंने,
ये तकदीर की ख्वाहिश थी या जमाना बेवफा हो गया था,
इस मोहब्बत के रस्म को बिना तारीख के भी निभाया है मैंने।
©नीतिश तिवारी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-05-2016) को "आस्था को किसी प्रमाण की जरुरत नहीं होती" (चर्चा अंक-2356) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Rachna shamil karne ke liye aapka dhanywaad.
Deleteइसलिए इसे मुहब्बत कहते हैं ...
ReplyDeletesahi kaha sir ji.
Delete