प्रस्तुत कविता समर्पित है उन सभी लोगो को जो किसी ना किसी रूप में उत्तराखंड की त्रासदी में प्रभावित हुए हैं और जिन्होने अपनी जिंदगी खो दी. ये कविता सही मायने मे एक श्रधांजलि है और इसे ज़रूर शेयर करें. पल भर का क्षण, और सब कुछ तबाह हो गया, ऐसी माया थी कुदरत की, कि मनुष्य लाचार हो गया. ना जाने कितने मर गये, ना जाने कितने लापता हैं, क्षत् विक्षत् लाशें बिखरीं हैं पहचान की तलाश में, पर शायद ये मुमकिन ना हो. लोग भटक रहे हैं, अपनो की तलाश में, पर उनका दर्द, कौन समझता है? शायद सिर्फ़ वो, जिन्होने खोया है , अपनो को, जिन्हे वो चाहते थे, जान से भी ज़्यादा, अपने आप से भी ज़्यादा. पर इस भयावह त्रासदी का ज़िम्मेदार कौन? मनुष्य या प्रकृति? जवाब सबके पास है, पर क्या फ़र्क पड़ेगा, उस बेटे को जिससे दूर हो गयी उसकी माँ, उस बेटी को जिसके सर पिता का साया छिन गया. उस सुहागिन को जो पल भर में विधवा हो गयी. ये कैसी विडंबना है, इस दुख की घड़ी में भी, हुक्कमरानो को कुछ फ़िक्र ऩही. लोगों की ,देश की, उन्हे फ़िक्र है तो सिर्फ़ राजनीति की, मूवावाजे के मरहम की, ज़ख़्मों