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एक मंज़िल की तलाश थी.







फ़ुर्सत अगर होता तो हक़ीकत बयान करते,
बातों से नही अपनी नगमों से दास्तान कहते,
ज़िंदगी की इस भीड़ ने दो राहे पर खड़ा कर दिया वरना,
मंज़िल की क्या बात थी हमे रास्ते भी सलाम करते.

मुझे चमचमाती रौशनी का शौक नही रहा कभी,
बस एक अदद दीये की दरकार थी,
और मुसाफिर कहते हैं लोग हमे इस भीड़ का,
पर मुझे तो सिर्फ़ एक मंज़िल की तलाश थी.

©नीतीश तिवारी

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